आज पाकिस्तान उस पहेली का हल खोज रहा है, जो उसकी खुद की बनाई हुयी है। हिलेरी क्लिंटन ने अपने दौरे में मीडिया से बात करते हुये कहा- "अगर पाकिस्तान और अमेरिका ने मिलकर आतंकवादियों के सुरक्षित ठिकानो को खत्म नही किया तो इसके अंजाम पाकिस्तान और अमेरिका दोनो के लिये ही बहुत खतरनाक होंगे"। जाहिर है यह एक कूट्नीतिक बयान था और बंद कमरो के पीछे पाकिस्तान को गंभीर अंजाम की चेतावनी दी गयी है। पाकिस्तान ने सोवियत संघ के अफ़गानिस्तान पर कब्जे और उसके बाद हुये जेहाद के वक्त से ही एक सोच अख्तियार कर ली थी कि अब अफ़गानिस्तान को अपना एक स्वायत्त राज्य बनाना है। इसके पीछे डिफ़ेंस इन डेप्थ की अवधारणा थी। भारत से हुये हर युद्ध में भारत पाकिस्तान के लगभग सभी ठिकानो पर हमला कर सकता था जबकि पाकिस्तान भारत के अंदर हमले की बहुत सीमित क्षमता था बंग्लादेश के अलग होने के बाद तो रही सही ताकत भी खत्म हो गयी और आगरा से आगे हमला करना उसके बूते से बाहर हो गया जाहिर है अब भारत अपने संसाधन देश की बाकी हिस्सों मे बना सकता था। अपनी इस कमजोरी को दूर करने के लिये पाकिस्तान ने अफ़गानिस्तान की ओर देखा।
अफ़गानिस्तान में सोवियत सेनाओं के चले जाने के बाद नजीबुल्ला की सरकार बनी। यह सरकार ठीक काम कर भी रही थी, पर यह सरकार पाकिस्तान की पिछलग्गू नही थी। जाहिर है जेहाद में पाकिस्तान ने नुकसान उठाया ही इसिलिये था कि उसे अफ़गानिस्तान पर नियंत्रण चाहिये था। पर अमेरिका ने सोवियत संघ के जाते ही पीठ फ़ेर ली, उसे पाकिस्तान की रणनीति और समस्याओं से कुछ लेना देना भी नही था। अब पाकिस्तान ने तालिबान को नजीबुल्ला के खिलाफ़ युद्ध मे लगा दिया और काबुल पर तालीबान का कब्जा हो गया। इस लड़ाई के लिये पैसा और लड़ाके अल कायदा ने इस्लाम के नाम पर ही दिये थे। अलकायदा का अगला निशाना अमेरिका था और उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को तबाह कर दिया और अमेरिका का दुश्मन नंबर वन बन गया। अब भी पाकिस्तान के पास मौका था वह ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौप सकता था। पाकिस्तान पर उन दिनो परमाणू परीक्षण के कारण प्रतिबंध लगे हुये थे और पाकिस्तान की कोई आवश्यकता न होने के कारण अमेरिका भारत की ओर मुड़ रहा था। पाकिस्तान ने सोचा कि ऐसे में अगर अमेरिका अफ़गानिस्तान मे जंग मे उलझ जाता है तो निश्चित रूप से पाकिस्तान को पैसों और हथियार की बड़ी इमदाद मिलनी शुरू हो जायेगी और जनरल मुशरर्फ़ की सैनिक सरकार को मान्यता भी मिल जायेगी।
यह बात साफ़ नही है कि उस समय पाकिस्तान ने इस पूरे अभियान की समाप्ति की क्या रूप रेखा सोची थी। अमेरिका की सोच भी उस समय तात्कालिक ही थी उसकी नाक दुनिया के सामने कटी हुयी थी और ओसामा बिन लादेन को मारना उसकी इज्जत का सवाल था। और पाकिस्तान ने भी सोचा होगा कि पानी सर के उपर चढ़ने के समय शीर्ष आतंकवादियो की बली चढ़ा दी जायेगी। पर इस पूरे मामले में पेंच आ गये और अमेरिका ने पाकिस्तान मे मौजूद ओसामा बिन लादेन को खोज लिया। उसके भी पहले अमेरिका यह भी जान चुका था कि पाकिस्तान दोगली चाल खेल रहा है। इसके अलावा भी जिस प्रकार से अमेरिका अफ़गानिस्तान में अपने स्थायी ठिकाने बना रहा है। उससे स्पष्ट है कि पूरी तरह से अफ़गानिस्तान छोड़ने की इसकी योजना नही है। अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में भारत को भी एक मुख्य भूमिका सौपी है। आज अफ़गानिस्तान मे चल रहे अभियान को भारत बड़ी आर्थिक सहायता दे रहा है ऐसे मे जाहिर है पाकिस्तान की नींद उड़ चुकी है कहां वह भारत के खिलाफ़ अफ़गानिस्तान को अपना ठिकाना बनाना चाह रहा था और उल्टे भारत ही अफ़गानिस्तान मे आ धमका। ऐसे मे पाकिस्तान की स्थिती सांप छछूंदर सी हो गयी है। उस पर तुर्रा यह कि उसकी दोगली चालो की तर्ज पर अमेरिका ने भी तालिबान के एक धड़े तहरीक ए तालिबान को अफ़गानिस्तान मे सुरक्षित ठिकाना दे दिया है और वहां से तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान पर कहर ढा रहा है।
अब पाकिस्तान का क्या होगा यह पाकिस्तान पर निर्भर नही है फ़िलहाल इसका निर्णय सिराज्जुद्दीन हक्कानी पर निर्भर करता है अमेरिका ने पाकिस्तान से साफ़ कर दिया है कि या तो हक्कानी समूह मुल्ला उमर का साथ छोड़ अमेरिका के साथ हो जाये या पाकिस्तान उसे तबाह कर दे। पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क पर हमला कर ही नही सकता क्योंकि ये हमला उत्तरी वजीरिस्तान के कबीलो को पाकिस्तान के साथ युद्ध में खड़ा कर देगा और पाकिस्तान यह खतरा नही उठा सकता। हक्कानी यह चाहेंगे कि अमेरिका अफ़गानिस्तान से जल्द से जल्द चला जाये और अफ़गानिस्तान पर उनका नियंत्रण हो जाये , पैसे या धमकी का असर उन पर पड़ने की संभावना कम है क्योंकि वे तो जान की बाजी लगा इस्लाम के नाम पर रहे हैं और अमेरिका अब तक उनके सामने कहजोर ही साबित हुआ है। पाकिस्तान चाह रहा है कि अफ़गानिस्तान मे उसकी पिछलग्गू सरकार बने। अमेरिका क्या चाहता है यह साफ़ नही, पर इस युद्ध मे खरबो डालर उसने खर्च किये हैं तो किसी न किसी आर्थिक उद्देश्य को पूरा करने के लिये ही। पूर्व सोवियत देशो से तेल निकाल कर वह अपने नुकसान की भरपायी कर सकता है। साथ ही चीन के खिलाफ़ जेहादियों को भी समर्थन दिया जा सकता है। फ़िर लीबिया के बाद इरान का तेल भंडार अमेरिका का अगला निशाना तो है ही।
पर सबसे अहम बात होगी अफ़गान क्या चाह रहे हैं। अफ़गान कुछ चाहे न चाहें अर अब वे पाकिस्तान से बेइंतहा नफ़रत जरूर करते हैं। पाकिस्तान की नीतियों ने उन्हे तबाह कर के रख दिया है। जब जब उनको शांती का अवसर मिलता है तो पाकिस्तान उस अवसर को बिगाड़ने में कोई कसर नही छोड़ता। ऐसे में अफ़गानो ने पाकिस्तान के बलोच विद्रोही नेताओं को अपने यहां बसने और पाकिस्तान पर हमले करने की छूट दे दी है। अब मामला पाकिस्तान के हाथ में तो नही है और भविष्य मे होने वाली घटनाएं हम पर भी गहरा असर डालेंगी। सबसे बड़ी बात अफ़गानिस्तान मे शांती तभी हो सकती है जब कश्मीर का विवाद सुलझ जाये। जब तक यह विवाद नहीं सुलझेगा तब तक पाकिस्तान भारत को दुश्मन मानता रहेगा और अफ़गानिस्तान में किसी भी तरह का अमन आना मुश्किल है। खैर अमन आ भी जाये तो नफ़रत के बीज जो बोये गये हैं उनसे लंबे समय तक इस क्षेत्र में हिंसा होती ही रहेगी।
अगले लेख में कश्मीर का सच झूठ और भविष्य
अफ़गानिस्तान में सोवियत सेनाओं के चले जाने के बाद नजीबुल्ला की सरकार बनी। यह सरकार ठीक काम कर भी रही थी, पर यह सरकार पाकिस्तान की पिछलग्गू नही थी। जाहिर है जेहाद में पाकिस्तान ने नुकसान उठाया ही इसिलिये था कि उसे अफ़गानिस्तान पर नियंत्रण चाहिये था। पर अमेरिका ने सोवियत संघ के जाते ही पीठ फ़ेर ली, उसे पाकिस्तान की रणनीति और समस्याओं से कुछ लेना देना भी नही था। अब पाकिस्तान ने तालिबान को नजीबुल्ला के खिलाफ़ युद्ध मे लगा दिया और काबुल पर तालीबान का कब्जा हो गया। इस लड़ाई के लिये पैसा और लड़ाके अल कायदा ने इस्लाम के नाम पर ही दिये थे। अलकायदा का अगला निशाना अमेरिका था और उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को तबाह कर दिया और अमेरिका का दुश्मन नंबर वन बन गया। अब भी पाकिस्तान के पास मौका था वह ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौप सकता था। पाकिस्तान पर उन दिनो परमाणू परीक्षण के कारण प्रतिबंध लगे हुये थे और पाकिस्तान की कोई आवश्यकता न होने के कारण अमेरिका भारत की ओर मुड़ रहा था। पाकिस्तान ने सोचा कि ऐसे में अगर अमेरिका अफ़गानिस्तान मे जंग मे उलझ जाता है तो निश्चित रूप से पाकिस्तान को पैसों और हथियार की बड़ी इमदाद मिलनी शुरू हो जायेगी और जनरल मुशरर्फ़ की सैनिक सरकार को मान्यता भी मिल जायेगी।
यह बात साफ़ नही है कि उस समय पाकिस्तान ने इस पूरे अभियान की समाप्ति की क्या रूप रेखा सोची थी। अमेरिका की सोच भी उस समय तात्कालिक ही थी उसकी नाक दुनिया के सामने कटी हुयी थी और ओसामा बिन लादेन को मारना उसकी इज्जत का सवाल था। और पाकिस्तान ने भी सोचा होगा कि पानी सर के उपर चढ़ने के समय शीर्ष आतंकवादियो की बली चढ़ा दी जायेगी। पर इस पूरे मामले में पेंच आ गये और अमेरिका ने पाकिस्तान मे मौजूद ओसामा बिन लादेन को खोज लिया। उसके भी पहले अमेरिका यह भी जान चुका था कि पाकिस्तान दोगली चाल खेल रहा है। इसके अलावा भी जिस प्रकार से अमेरिका अफ़गानिस्तान में अपने स्थायी ठिकाने बना रहा है। उससे स्पष्ट है कि पूरी तरह से अफ़गानिस्तान छोड़ने की इसकी योजना नही है। अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में भारत को भी एक मुख्य भूमिका सौपी है। आज अफ़गानिस्तान मे चल रहे अभियान को भारत बड़ी आर्थिक सहायता दे रहा है ऐसे मे जाहिर है पाकिस्तान की नींद उड़ चुकी है कहां वह भारत के खिलाफ़ अफ़गानिस्तान को अपना ठिकाना बनाना चाह रहा था और उल्टे भारत ही अफ़गानिस्तान मे आ धमका। ऐसे मे पाकिस्तान की स्थिती सांप छछूंदर सी हो गयी है। उस पर तुर्रा यह कि उसकी दोगली चालो की तर्ज पर अमेरिका ने भी तालिबान के एक धड़े तहरीक ए तालिबान को अफ़गानिस्तान मे सुरक्षित ठिकाना दे दिया है और वहां से तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान पर कहर ढा रहा है।
अब पाकिस्तान का क्या होगा यह पाकिस्तान पर निर्भर नही है फ़िलहाल इसका निर्णय सिराज्जुद्दीन हक्कानी पर निर्भर करता है अमेरिका ने पाकिस्तान से साफ़ कर दिया है कि या तो हक्कानी समूह मुल्ला उमर का साथ छोड़ अमेरिका के साथ हो जाये या पाकिस्तान उसे तबाह कर दे। पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क पर हमला कर ही नही सकता क्योंकि ये हमला उत्तरी वजीरिस्तान के कबीलो को पाकिस्तान के साथ युद्ध में खड़ा कर देगा और पाकिस्तान यह खतरा नही उठा सकता। हक्कानी यह चाहेंगे कि अमेरिका अफ़गानिस्तान से जल्द से जल्द चला जाये और अफ़गानिस्तान पर उनका नियंत्रण हो जाये , पैसे या धमकी का असर उन पर पड़ने की संभावना कम है क्योंकि वे तो जान की बाजी लगा इस्लाम के नाम पर रहे हैं और अमेरिका अब तक उनके सामने कहजोर ही साबित हुआ है। पाकिस्तान चाह रहा है कि अफ़गानिस्तान मे उसकी पिछलग्गू सरकार बने। अमेरिका क्या चाहता है यह साफ़ नही, पर इस युद्ध मे खरबो डालर उसने खर्च किये हैं तो किसी न किसी आर्थिक उद्देश्य को पूरा करने के लिये ही। पूर्व सोवियत देशो से तेल निकाल कर वह अपने नुकसान की भरपायी कर सकता है। साथ ही चीन के खिलाफ़ जेहादियों को भी समर्थन दिया जा सकता है। फ़िर लीबिया के बाद इरान का तेल भंडार अमेरिका का अगला निशाना तो है ही।
पर सबसे अहम बात होगी अफ़गान क्या चाह रहे हैं। अफ़गान कुछ चाहे न चाहें अर अब वे पाकिस्तान से बेइंतहा नफ़रत जरूर करते हैं। पाकिस्तान की नीतियों ने उन्हे तबाह कर के रख दिया है। जब जब उनको शांती का अवसर मिलता है तो पाकिस्तान उस अवसर को बिगाड़ने में कोई कसर नही छोड़ता। ऐसे में अफ़गानो ने पाकिस्तान के बलोच विद्रोही नेताओं को अपने यहां बसने और पाकिस्तान पर हमले करने की छूट दे दी है। अब मामला पाकिस्तान के हाथ में तो नही है और भविष्य मे होने वाली घटनाएं हम पर भी गहरा असर डालेंगी। सबसे बड़ी बात अफ़गानिस्तान मे शांती तभी हो सकती है जब कश्मीर का विवाद सुलझ जाये। जब तक यह विवाद नहीं सुलझेगा तब तक पाकिस्तान भारत को दुश्मन मानता रहेगा और अफ़गानिस्तान में किसी भी तरह का अमन आना मुश्किल है। खैर अमन आ भी जाये तो नफ़रत के बीज जो बोये गये हैं उनसे लंबे समय तक इस क्षेत्र में हिंसा होती ही रहेगी।
अगले लेख में कश्मीर का सच झूठ और भविष्य