Friday, November 11, 2011

कश्मीर- सच, झूठ और अंतिम समाधान





कश्मीर एक ऐसा राज्य है जिसे कोई भी भारतीय या पाकिस्तानी आसानी से श्राप की संज्ञा दे सकता है। पर मामला यहां उल्टा है कश्मीर का नाम लेते ही दोनो देशों के नागरिकों की नसें तन जाती हैं। हिंदुस्तानी यह मानते हैं कि जब कश्मीर के राजा ने भारत से जुड़ना स्वीकार कर लिया तो कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया। पाकिस्तानी यह मानते हैं कि रियासतों के बटवारे में अलिखित समझ यह थी कि  हिंदू बहुल हैदराबाद भारत का भाग बन जायेगा और मुस्लिम बहुल कश्मीर पाकिस्तान का। पर बात अंतिम नही थी बटवारा होते होते अंग्रेजो ने कश्मीर और हैदराबाद को स्वतंत्र रियासत का दर्जा दे दिया,  मर्जी उनकी थी कि किससे जा मिले या स्वतंत्र रहें ।

 जारी रस्साकशी के बीच पाकिस्तान ने वो बेवकूफ़ी कर दी जो किसी भी समझदार मुल्क से अपेक्षित नही होती है। उसने कबाईलियों के भेष में अपने सैनिक वहां भेज हमला कर दिया। उस वक्त तक कश्मीर के महाराजा ने किसी से भी मिलने का फ़ैसला नही किया था और जाहिर है हिंदुस्तान को जब हैदराबाद अपने में शामिल करना होता तब पाकिस्तान उस अवसर को लीवरेज की तरह इस्तेमाल कर के कश्मीर को अपने में मिला सकता था। उस वक्त कश्मीर के महाराजा को हिंदुस्तान मदद नही करता।


इस हमले के बाद  कश्मीर के महाराजा ने भारत से मदद मांगी।  उधर इस्लाम के नाम पर जुटाये गये  हमलावर पाकिस्तानी सैनिकों ने  कश्मीर के इसाई चर्च और स्कूलों में जमकर लूटपाट और हत्या बलात्कार जैसी हरकतों की झड़ी लगा दी थी। इस हरकत ने माउंटबेटन को भी भड़का दिया सो उन्होने सीधे सीधे महाराजा कश्मीर को भारत में शामिल होने की शर्त लगा दी। मजबूरन महाराजा को शामिल होना पड़ा और युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में भारत जीत हासिल कर चुका था और उसने पाकिस्तानियों को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था। पर अब बेवकूफ़ी करने की बारी भारत की थी और नेहरू साहब ने संयुक्त राष्ट्र मे जाकर इस मुद्दे पर दखल की गुजारिश कर दी। उस पर तुर्रा यह कि उन्होने इसके बारे में सेना से न राय ली न ही उसे बताया। आम तौर पर युद्ध विराम के पहले सेना को सूचित किया जाता है ताकि वह सीमा पर अपने लिये सामरिक फ़ायदे की जगहों को चुन उन पर कब्जा कर ले। संयुक्त राष्ट्र ने जनमत संग्रह कराने का निर्णय लिया पर अब तक भारत अपनी गलती महसूस कर चुका था उसने तमाम शर्ते लगा दी और पाकिस्तान ने अगली बेवकूफ़ी की संयुक्त राष्ट्र का फ़ैसला यह था कि दोनो देशो की सेनाएं वहा से हट जायें और वहा निष्पक्ष मतदान हो पर पाकिस्तान अपनी सेनायें अनजाने डर से नही हटाईं और मामला टल गया। अब यह मामला पिछले चौसठ सालों से दोनो देशो के लिये नासूर बना हुआ है।

 तीन युद्धों और एक कारगिल के बाद भारत और पाकिस्तान ऐसे खेल में मशगूल हैं जिसका हल निकलता नजर नही आता। पाकिस्तान की जनता ने कश्मीर के लिये सैनिक तानाशाहों को भी सहा असंख्य कुर्बानियां भी दी और आतंकवाद का सांप भी पाला जो कि अब उनके ही गले पड़ गया है। भारत ने भी कम नुकसान नही उठाया है, पाकिस्तान के संभावित हमले से बचने के लिये और आतंकवादियों से निपटने के लिये और कश्मीर मे शांती बनाये रखने के लिये उसने असंख्य कुर्बानियां और अकूत दौलत खर्च की है। पाकिस्तान तो खैर तबाह ही हो चुका है दिवालिये पन की कगार में खड़ा होने के बावजूद उसकी सेना तकरीबन आधा बजट ले जाती है। दोनो देशो में ऐसे लोग हैं जो नारा लगाते हैं घांस खायेंगे पर कश्मीर के मामले पर समझौता नही का नारा लगाते हैं। जाहिर है घास तो गरीब जनता को ही खानी होती है,  नारा लगाने वाले तो वे लोग होते हैं जिनके पेट भरे हुये होते हैं।

समस्या यहीं तक सीमित नही है,  भारत और पाकिस्तान बदले का बदला चुकाते चुकाते एक दूसरे यहां ऐसी समस्याएं खड़ी करते जाते हैं जिनको खत्म करने मे दशकों लग जाते है और तब तक लाशों का अंबार लग चुका होता है। खालिस्तान हो या बलूचिस्तान कीमत आम आदमी को ही चुकानी होती है। इसके अलावा भी चीन और अमेरिका जैसे मुल्क और हथियारों के सौदागर इस लड़ाई में अपना उल्लू सीधा करते हैं।

कश्मीर में यथास्थिती बरकरार रहने में भारत का फ़ायदा है और गतिरोध टूटने में पाकिस्तान का। लेकिन इस गतिरोध के बने रहने का बिल लाखो डालर प्रति धंटे का है और यह बात भी तय है कि इस समस्या का समाधान हुये बिना भारत चीन से नही निपट सकता। आतंकवाद, नक्सलवाद आदि समस्याओं को खत्म नही किया जा सकता। और भारत के लिये जरूरी उर्जा की सप्लाई भी इस समस्या का समाधान होते ही सुरक्षित हो जायेगी। सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये जरूरी तेल और गैस इरान और पूर्व सोवियत संघ देशो से पाईपलाईन के जरिये भारत आने लगेगा।


इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है, जाहिर सी बात है कि समाधान के लिये दोनो ही मुल्कों को अपना कदम पीछे खींचना होगा और राह ऐसी तलाशनी होगी जिसमें दोनो ही देशों के नेता अपनी जनता और खास कर मीडिया को संतुष्ट भी कर सके।  क्यों न भारत कश्मीर से जम्मू और लद्दाख के हिस्से को अलग कर के अपने में शामिल कर ले। दूसरी ओर पाकिस्तान आजाद कश्मीर से North west frontier इलाके को अलग कर अपने में शामिल कर ले। अब बचा कश्मीर का वह इलाका जो कश्मीर की आजादी चाह रहा है इसमे से कुछ पाकिस्तान में शामिल होना चाहते है,  कुछ भारत में और अधिकांश लोग  अलग देश बनाना चाहते हैं। क्यों न इस इलाके को एक अलग रूप दिया जाये, जिसमे अपने हिस्सो पर कब्जा तो दोनो देशो का बरकरार रहे,  लेकिन इन हिस्सो के बीच अंतराष्ट्रीय सीमा केवल नाम की रहे। और इस हिस्से को बीस या तीस साल बाद जनमत संग्रह का अधिकार हो कि या तो वह दोनो में से किसी एक देश के साथ जुड़े या स्वतंत्रता ले ले। इस जनमत संग्रह मे दो तिहाई बहुत का मिलना आवश्यक शर्त हो। ऐसा न होने पर अगला जनमत संग्रह फ़िर निश्चित अंतराल में हो।

संभावित कदम के पहले भी दोनो देशो को  पानी, सुरक्षा और सड़क इन तीन मुद्दो पर काफ़ी काम करना होगा। तैयारी यही होगी कि क्श्मीर अलग हो जाये तब क्या या विरोधी के साथ चला जाये तब क्या। हालांकि कश्मीर के इस छोटे से हिस्से के अलग हो जाने से दोनो देशो को कोई खास रणनैतिक नुकसान नही होगा और दोनो ही देश अपने रक्षा बजट को बेहद कम कर सकेंग। इसके बाद दक्षिणी पश्चिमी एशिया में एक नई ताकत उभरेगी जो विश्व के सता संतुलन को प्रभावित कर सकेगी।


आपको अगर लगे कि यह हवा हवाई सोच है तो आपकी जानकारी के लिये अटल जी की सरकार और उसके बाद मनमोहन सिंग की सरकार इस विकल्प पर ही काम कर रही है। पिछले दरवाजे से इस समाधान के दांव पेंच पर चर्चा चल रही हैं। चीन को नियंत्रण में रखने को आतुर अमेरिका भी इसी समाधान पर जोर दे रहा है। लेकिन आशंका यही है कि पाकिस्तान की सेना जो भारत के हौव्वे को दिखाकर चौसठ सालो से ऐश कर रही है वह असानी से इस समाधान को अमली जामा पहनने नही देगी। चीन के भी सामरिक हित इस समझौते के खिलाफ़ है। ऐसा होते ही भारत चीन से मुकाबले को स्वतंत्र हो जायेगा और उसके बाद भारत से निपटना चीन के लिये टेढ़ी खीर होगा।



इस शतरंज की बिसात पर इमरान खान पाकिस्तानी फ़ौज का नया मोहरा है जो भारत और पाकिस्तान के संबंध निजी हितो के कारण मधुर होने देना नही चाहती। मनमोहन सिंग की सरकार की नाकामियां और भ्रष्टाचार भी इस पहल को दस साल दूर ढकेलने मे सक्षम हैं।  कांग्रेस को हराकर सता मे आयी नयी सरकार भी आसानी से नये विवाद को जन्म देना नही चाहेगी। आखिर सता अपने फ़ायदे के लिये पायी जाती है न कि देश के फ़ायदे के लिये।

3 comments:

  1. SABHI BINDU SE SAHMAT HU PAR JANMAT SANGRAH AK SHART PAR,,,,KAHSMEERI HINDU KO WAPAS KASHMEER ME JAGAH DO

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  2. उस वक्त नेतृत्व की गलतियाँ दोनों ही देश अब तक भुगत रहे है|

    Gyan Darpan
    .

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  3. संभवतः संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाकर ही काश्मीर समस्या को अमर कर दिया गया....
    सार्थक आलेख...
    सादर बधाई...

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