Tuesday, November 29, 2011

पाकिस्तान पर अमेरिकी हमला- कारण और भविष्य

पाकिस्तान की मोहम्मद एजेंसी इलाके में अमेरिकी हमले मे 24  जवान शहीद हो गये। यह कोई आम हमला नही था और न ही ड्रोन या हेलिकाप्टर द्वारा चलाई गयी एक या दो मिसाइलो द्वारा किया गया हमला। यह हमला पाकिस्तान की दो चौकियों पर हुआ और तकरीबन दो घंटे चला।  पाकिस्तान में इस विषय को लेकर भारी गुस्सा है,  रैलिया निकल रही है।  दूसरी ओर पाकिस्तान की लीडरशिप इस मामले में कड़े बयान जारी कर रही है। बलूचिस्तान स्थित शम्सी एयर बेस को खाली करने का अल्टीमेटम दिया जा चुका है और नाटॊ की सप्लाई लाईन स्थगित कर दी है। दूसरी ओर अमेरिका सैनिको की मौत पर अफ़सोस जाहिर कर चुका है और घटना की जांच करने और नतीजा पाकिस्तानी अधिकारियों को बताने का आश्वासन दे रहा है।


वह बात जो दोनो पक्ष नही कह रहे हैं, वह यह है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को बता दिया है कि वह क्या क्या करने से परहेज नही करेगा। दूसरी ओर पाकिस्तान भी अमेरिका को तेवर दिखा रहा है और मामला अब अमेरिका और पाकिस्तान के बीच टकराव की ओर जा रहा है। इस टकराव की वजह पाकिस्तान की वे नीतिया है जो उसने 9/11  को अमेरिका में हुये आतंकवादी हमले के बाद अपनाई थी। उस वक्त पाकिस्तान ने अमेरिका का साथ देने की बात कही।  लेकिन अंदर खाते उसने  अलकायदा और तालिबान को पनाह दी और उसे अमेरिका पर हमले मे मदद भी की। ऐसा इसलिये हुआ कि पाकिस्तान और अमेरिका के हित अलग थे, पाकिस्तान अफ़गानिस्तान में अपने नियत्रण वाली सरकार बनाना चाहता था। मकसद यह कि वह तालिबान को भारत के विरूद्ध जंग में उपयोग चाहता था। हम भारतीय विमान अपहरण और कंधार में जाकर आतंकवादियो को तालिबान के हवाले करने वाले मामले में देख ही चुके है। दूसरा मकसद अफ़गानिस्तान के अपने नियंत्रण मे होने से पाकिस्तान को डिफ़ेंस इन डेप्थ का फ़ायदा मिलता है।

वहीं अमेरिका अफ़गानिस्तान को आतंकवाद मुक्त और प्रगतीशील देश बनाना चाहता है, किसी भी सूरत में आतंकवाद की पनाहगाह बनने का खतरा वह दूसरी बार नही उठा सकता। दूसरी ओर मध्यपूर्व एशिया के पूर्व सोवियत देशो मे तेल का अथाह भंडार है। जिसे अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के जरिये वह बिना रूस के हस्तक्षेप के बाजार में ला सकता है। तीसरी ओर चीन को घेरने के लिये भी उसे अफ़गानिस्तान पर अपने नियंत्रण वाली सरकार चाहिये।



इन हितो में टकराव पाकिस्तान की दोहरी नीतियो ने मामले को इतने साल उलझाय रखा और अमेरिका को अफ़गानिस्तान में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन अब हालात में परिवर्तन आ चुका है ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान मे मिलने के बाद अमेरिका पाकिस्तान की दोहरी चाल समझ गया। अभी तक तालीबान अपने यहा छुपे न होने या कबीलाई लोगो से दुश्मनी मोल न ले सकने के बहाने दे पाकिस्तान डालर भी लेता रहा और तालिबान को मदद भी करता रहा। लेकिन ओसामा केस के बाद अमेरिका ने पूरे मामले को पलट कर देखा तो उसे साफ़ समझ मे आ गया कि माजरा क्या है लेकिन तब नाटो की अस्सी फ़ीसदी सप्लाई पाकिस्तान से ही होकर आती थी।  सो उसने दो काम किये पहला अड़चनो का बहाना दे डालर देना बंद किया दूसरा नाटो का सप्लाई रूट उसने मध्यपूर्व एशिया से बना लिया। अब नाटो की चालीस फ़ीसदी से भी कम सप्लाई पाकिस्तान से आती है और उसने सात महिने का भंडार जमा कर लिया है। अब अमेरिका पाकिस्तान को बिना साथ लिये भी अफ़गानिस्तान का मसला हल कर सकता है।


अब अमेरिका के सामने कोई मजबूरी नही है इसलिये उसने तफ़्सील से इन चौकियों पर हमले किये और सुनिश्चित भी किया कि पाकिस्तान को ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। अब फ़ैसला पाकिस्तान को करना है या तो वो अफ़गानिस्तान का फ़ैसला अमेरिका के हिसाब से होने दे या लड़ाई की राह चुने। जाहिर है लड़ तो वो सकता नही मोलभाव जरूर कर सकता है। पर मोलभाव मे काम मे लिये जा सकने वाले सारे पत्ते उसने पहले ही खो दिये हैं। अब भाव कम मिलेगा और मोल ज्यादा चुकाना होगा। अगरचे वह अमेरिका का समर्थन चाह्ता है तो उसे चीन के खिलाफ़ बन रहे अंतराष्ट्रीय व्यूह मे शामिल होना होगा। ताकि अरब सागर से चीन की सप्लाई बंद हो जाये और इरान अलग थलग पड़ जाये। इसके लिये उसे भारत से कश्मीर पर समझौता भी करना होगा, भारत विरोधी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को बदलना होगा और अपने यहां से आपरेट कर रहे सभी आतंकवादी समूहो का खात्मा करना होगा।

बीच का रास्ता यह निकल सकता है कि पाकिस्तान भारत से संबंध न सुधारे पर अमेरिका के खिलाफ़ तालिबान को हमले करने से रोके। ऐसे में अफ़गानिस्तान के युद्ध मे काफ़ी पैसे लगा चुके भारत जो अफ़गान सरकार की मदद कर वहा अपनी जड़े जमा चुका है। उसे पाकिस्तान के इलाको खासकर बलूचिस्तान में दखल देने से पाकिस्तान नही रोक सकता। ऐसी सूरत मे विकल्प एक ही बचता है कि पाकिस्तान भारत से दुश्मनी छोड़े या नुकसान उठाये।


आखिरी और अंतिम विकल्प यह है की पाकिस्तान टकराव की राह पर चले। यह टकराव कितना हो यह देखना बाकी है, पर किसी न किसी स्टेज मे पाकिस्तान को चीन और युद्ध तथा अमेरिका और शांती के बीच चुनाव करना ही होगा, उसके विकल्प कम से कमतर होते जा रहे हैं। पहले विकल्प से भारत को कॊई फ़ायदा नही क्योंकि वह तो पहले ही इस अवश्यंभावी युद्ध में अपने को उलझा चुका है। मनमोहन सिंग के नेतृत्व वाली सरकार ने भारत के हित को अमेरिका के हित से मिला दिया है और भारत की मीडिया में प्रतिदिन दिखाये जा रहे चीन विरोधी समाचार इस युद्ध की पूर्व तैयारियां है।युद्ध टल भी गया तो इस राह मे चल होना ही है। जितनी देर से होगा भारतीय पैसे उतने अधिक अमेरिकी हथियारो को खरीदने मे  जाया हो चुके होंगे। पाकिस्तान यदि अमेरिका और शांती को चुन लेता है ’जिसकी संभावना बेहद क्षीण है’,  तो निश्चित ही भारत अपना पूरा ध्यान चीन पर लगा सकेगा।

1 comment:

  1. सटीक विश्लेषण भू -भौगोलिक परिस्थितियों का पडोसी की नीयत का ,नियति का .

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