Saturday, September 8, 2012

अब आया पाकिस्तान पहाड़ के नीचे



 अमेरिका द्वारा हक्कानी नेटवर्क को आतंकवादी संगठन करार किये  के पाकिस्तान के लिये बहुत गंभीर परिणाम होंगे। इस प्रतिबंध के प्रावधानो के तहत ऐसे आतंकवादी संगठनो को हथियार और मदद प्रदान करने वाले सभी संगठनो पर शिकंजा और कार्यवाही शामिल है। हक्कानी नेटवर्क  वह संगठन है जो अफ़गानिस्तान मे अमेरिका को जान माल की क्षति पहुंचाने वाला प्रमुख पख्तून कबिलाई समूह है। अब इसे खत्म किये बिना अमेरिका अफ़गानिस्तान से बाहर नही निकल सकता है। हक्कानी समूह का पूरा आर्थिक, सैनिक साम्राज्य पाकिस्तान के कबिलाई इलाको से नियंत्रित होता है और उसके अंदर आई एस आई की गहरी पैठ है।  हक्कानियो के पाकिस्तान से संचालन के कारण अमेरिका उसे गंभीर नुकसान पहुंचाने मे असफ़ल रहा। उस पर किये गये ड्रोन हमले भी पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसी आईएसआई की तकनीकी मदद के कारण हक्कानियो को घातक चोट से बचा लेती है। और पाकिस्तान मे सीधी जमीनी कार्यवाही बिना पाकिस्तान से जंग का एलान किये बिना अमेरिका नही कर सकता था।


अब  अमेरिका का इंटरनेशनल फ़ोरम में पाकिस्तान द्वारा हक्कानी नेटवर्क को दी जा रही मदद के सबूत रखेगा,  पाकिस्तान को एक आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का दबाव बनायेगा। हालांकि चीन और रूस जैसे देश इस कदम का विरोध करेंगे लेकिन फ़िर भी संयुक्त राष्ट्र के बिना भी यूरोपीय देशो के साथ मिल वह पाकिस्तान पर एक तरफ़ा आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता है। इसके बाद  पाकिस्तान  के  इरान की तरह बाकी दुनिया से  आर्थिक संबध लगभग खत्म हो जायेंगे। हक्कानी नेटवर्क की मदद में सीधे रूप मे शामिल आई एस आई की गतिविधियो पर भी अब लगाम लगाई जायेगी। जिसमे विदेशो मे उसके आर्थिक स्त्रोत बंद और खाते सील किये जा सकेंगे। और हक्कानियो के साथ नजर आने वाले उसके एजेंटो पर भी हमले किये जा सकते है।


पाकिस्तान के पास अब रास्ते कम बचे है। इरान की तरह उसके पास तेल भी नही है, अर्थव्य्वस्था पहले ही तबाह है। ऐसे में अमेरिका बादशाह के सामने देर सवेर उसे घुटने टेकने ही है। परंतु  हक्कानियो से पल्ला झाड़ने के भी गंभीर दुष्परिणाम होंगे। वही दुष्परिणाम जिनका स्वाद आज पाकिस्तान भोग रहा है। आतंकवादियो को कूटनीतिक लक्ष्य के लिये तैयार किया जाता है। लेकिन जब वह लक्ष्य पूरा हो जाये या उसे छोड़ना हो, तो ऐसे में आतंकवादी किसी काम के नही रहते। जब आप उनसे पल्ला झाड़ लेते है तो उन आतंकवादियो की बंदूके अपने ही बनाने वालो की ओर मुड़ जाती है। तहरीक-ए-तालीबान जो आज पाकिस्तान में कहर बरपा रहा है इसका बढ़िया उदाहरण है। लेकिन हक्कानीयो के सामने तहरीक-ए-तालीबान बच्चे है। जो हक्कानी अमेरिका जैसे सुपरपावर को नाको चने चबवा सकता है। वो पाकिस्तान का क्या हाल करेगा, यह कल्पना भी मुश्किल है। इसी कल्पना से पाकिस्तान सकपकाया हुआ है।


बात इससे भी आगे की है। पाकिस्तान ने अपने मदरसो को जिहादियो  का कारखाना बनाया हुआ है। उसके नागरिको और सेना  के अंदर ही एक बड़ा ऐसा वर्ग है। जिसकी सहानुभूती तालीबान के साथ में है। ऐसे में जब टकराव होगा तो  पाकिस्तान  की चूले हिल जायेंगी। वो नफ़रत फ़ैलाने के बिजनेस के अंजाम से खौफ़ जदा है। इसलिये  आज वहां नीतियो मे आमूल चूल परिवर्तन की तैयारी हो चुकी है। उसे भारत की सीमाओ से अपनी फ़ौज और संसाधन हटा अफ़गान सीमा में हक्कानियो और अन्य तालिबानियो के खिलाफ़ लगाना होगा। ऐसा तभी हो सकेगा जब वह भारत के साथ दुश्मनी की अपनी चौसठ साल पुरानी नीती बदल दोस्ती और व्यापार की राह चुने। बिना कश्मीर का मुद्दा हल हुये व्यापार खोलना, इसी ओर बढ़ाया गया कदम है।

लेकिन हिंदुस्तान को एक हाथ में फ़ूल और दूसरे हाथ में तैयार बंदूक के साथ ही स्वागत करना चाहिये। जिस देश ने अपनी पूरी पीढ़ी को भारत से दुश्मनी और जिहाद का पाठ पढ़ाया हो। वहां के नेताओ और जनरलो की अकल भले ठिकाने आ गयी हो। लेकिन मुल्लाओ और कट्टरपंथियो की अकल ठिकाने अल्लाह और अमरीका के अलावा कोई नही ला सकता।

Monday, January 16, 2012

पाकिस्तान - हालात इतने बुरे भी नही

पाकिस्तान मे आज हंगामा खेज माहौल है। भारतीय मीडिया में दिखाई जा रही खबरो पर यकीं करे तो किसी भी समय वहा की सरकार के गिरने का फ़ौज के सत्ता पर काबिज होने का और प्रधानमंत्री गिलानी के अदालत की अवमानना के आरोप में जेल जाने की सूचना आ सकती है। वहां चल रहे दो मुकदमो NRO और मेमोगेट
मामले मे सरकार अदालत और फ़ौज में टकराव की स्थिती आ चुकी है। लेकिन हालात इतने संगीन भी नही है और सनसनीखेज कयासो के विपरीत पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार सोचे समझे प्लान के तहत ही कदम उठा रही है।

पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की सरकार के सामने मुसीबतो का अंबार है देश की अर्थव्यवस्था गर्त मे है। अपने चार साल के कार्यकाल मे गिलानी ने फ़ौज की हर बात मानी। हर नीती पर फ़ौज की सलाह का पालन किया लेकिन अब फ़ौज के लिये इस सरकार का रहना बर्दाश्त नही।  सेना की सोच है कि पाकिस्तान में अपनी कठपुतली सरकार बना पाकिस्तान के कानून में  फ़ेर बदल कर भ्रष्टाचार को कम कर और टैक्स वसूली को सख्त कर पाकिस्तान को अपने पैरो में खड़े करने का प्रयास किया जा सके।  मुख्य विपक्षी पार्टी नवाज शरीफ़ की है। जो खुद फ़ौज के द्वारा बनाये और फ़िर जन समर्थन मिलने के बाद अपनी नीतियो पर चलने के कारण निपटाये जा चुके हैं। ऐसे मे उनका सत्ता मे आना भी फ़ौज के लिये नुकसान देह ही है। सो फ़ौज आई एस आई को इमरान खान के साथ लगा नया पिठ्ठू बैठाने की तैयारी में है।


लेकिन फ़ौज की इस चाल को धक्का लगा है सुप्रीम कोर्ट से। पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट हमारी सुप्रीम कोर्ट की तरह नही है बल्कि नवाज शरीफ़ के नेतृत्व मे उठे जन सैलाब के दबाव मे इन जजो को रिहा और वापस पदो पर बहाल किया गया है। सो यह सुप्रीम कोर्ट अपने को केवल और केवल जनता के प्रति जवाबदेह मानती है और अपने पूर्ववर्तियो की अपेक्षा बेहद इमानदार और संविधान के हिसाब से चलने वाली है। फ़ौज मेमोगेट केस के माध्यम से राष्ट्रपति जरदारी और लोकतांत्रिक सरकार को निपटाने की तैयारी मे थी और इस काम को आठ दस महिनो बाद करना चाहती थी ताकि इमरान खान जिनकी पार्टी फ़िल्हाल नेताओ तक सीमित है को जमीनी स्तर पर ढांचा बनाने के लिये इमरान और आईएसआई को वक्त मिल जाये।

इस मामले के चौथे पहलू नवाज शरीफ़ (जिन्हे सुप्रीम कोर्ट की बहाली के आंदोलन के नेता होने के कारण सुप्रीम कोर्ट की सहानुभुती हासिल है) जो चाहते है कि अल्लाह कुछ करे तो राष्ट्रपति जरदारी और ये सरकार दोनो घर जाये। लेकिन वे यह भी नही चाहते कि खाली जगह मे उनके बदले फ़ौज का पिठ्ठू बैठ जाये वे अब पाकिस्तान को लोकतंत्र की पटरी से उतरा देखना बर्दाश्त नही कर सकते। उधर फ़ौज भी आर्थिक रूप से बदहाल देश मे तख्ता पलट कर बदनामी हासिल करने और फ़िर जनता की समस्या दूर न करने के कारण जनता का गुस्सा झेलने को तैयार नही।


फ़िल्हाल एन आर ओ केस मे गिलानी को अवमानना का नोटिस जारी हो चुका है उन्हे दो साल से सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति जरदारी के खिलाफ़ मुकदमा दायर करने के लिये स्विस अदालत को पत्र लिखने को कह रहा था सोलह जनवरी तक या उन्हे पत्र लिखना था या पत्र क्यो नही लिखा जा सकता इस बात का तर्क सुप्रीम कोर्ट में देना था। यह दोनो ही नही करने के कारण उन्हे अवमानना का नोटिस मिल चुका है। लेकिन उनके पास अभी रास्ते खत्म नही हुये हैं।  वे 19 जनवरी को अदालत मे पेश हो अपनी सफ़ाई देंगे और यह भी कहेंगे कि यह पत्र क्यो नही लिखा जा सकता। बेनजीर भुट्टॊ की शहादत और इस केस के चलने से उनकी बेईज्जती की बाते भी कहेंगे। साथ ही वे जरदारी को राष्ट्रपती होने के कारण किसी भी प्रकार के मुकदमे या आरोप से बचाव की बात रखेंगे। उनके आखिरी तर्क के उपर कोर्ट उन्हे इस पर विचार कर इस तर्क पर मामला साफ़ करने के लिये अगली तारीख दे देगा। साथ ही साथ गिलानी सुप्रीम कोर्ट को माई बाप भी कहेंगे और अदालत की तौहीन सपने में भी नही कर सकने की बात करेंगे। साथ ही यह भी याद दिलायेंगे कि सुप्रीम कोर्ट की बहाली का आदेश उन्होने ही जारी किया था और सुप्रीम कोर्ट की बहाली के लिये जेले भी काटी थी। आखिर में वे अदालत के सामने अपनी गर्दन पेश कर देंगे कि शहीद की कब्र से छेड़ छाड़ नही कर सकता और आपकी तौहीन भी नही कर सकता। सो यदि कोर्ट फ़िर भी इस पत्र को लिखवाने का आदेश देती है, तो वे अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे और दूसरा प्रधानमंत्री कोर्ट क आदेश की तामीळ करेगा। अगर पत्र लिखने की नौबत आना ही है तो पाकिस्तान का अगला प्रधानमंत्री PML Q  के नेता चौधरी शुजात हुसैन हो सकते है। वे पीप्ल्स पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार मे शामिल ही हैं। लेकिन सब इतना जल्दी भी नही होने वाला जैसा सनसनी फ़ैलाउ मीडिया हमे बता रहा है।



वैसे पाकिस्तान के बारे में ऐसी भविष्यवाणिया करना सही भी नही, अल्लाह के नाम पर बने देश का अल्लाह ही मालिक है।

Tuesday, November 29, 2011

पाकिस्तान पर अमेरिकी हमला- कारण और भविष्य

पाकिस्तान की मोहम्मद एजेंसी इलाके में अमेरिकी हमले मे 24  जवान शहीद हो गये। यह कोई आम हमला नही था और न ही ड्रोन या हेलिकाप्टर द्वारा चलाई गयी एक या दो मिसाइलो द्वारा किया गया हमला। यह हमला पाकिस्तान की दो चौकियों पर हुआ और तकरीबन दो घंटे चला।  पाकिस्तान में इस विषय को लेकर भारी गुस्सा है,  रैलिया निकल रही है।  दूसरी ओर पाकिस्तान की लीडरशिप इस मामले में कड़े बयान जारी कर रही है। बलूचिस्तान स्थित शम्सी एयर बेस को खाली करने का अल्टीमेटम दिया जा चुका है और नाटॊ की सप्लाई लाईन स्थगित कर दी है। दूसरी ओर अमेरिका सैनिको की मौत पर अफ़सोस जाहिर कर चुका है और घटना की जांच करने और नतीजा पाकिस्तानी अधिकारियों को बताने का आश्वासन दे रहा है।


वह बात जो दोनो पक्ष नही कह रहे हैं, वह यह है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को बता दिया है कि वह क्या क्या करने से परहेज नही करेगा। दूसरी ओर पाकिस्तान भी अमेरिका को तेवर दिखा रहा है और मामला अब अमेरिका और पाकिस्तान के बीच टकराव की ओर जा रहा है। इस टकराव की वजह पाकिस्तान की वे नीतिया है जो उसने 9/11  को अमेरिका में हुये आतंकवादी हमले के बाद अपनाई थी। उस वक्त पाकिस्तान ने अमेरिका का साथ देने की बात कही।  लेकिन अंदर खाते उसने  अलकायदा और तालिबान को पनाह दी और उसे अमेरिका पर हमले मे मदद भी की। ऐसा इसलिये हुआ कि पाकिस्तान और अमेरिका के हित अलग थे, पाकिस्तान अफ़गानिस्तान में अपने नियत्रण वाली सरकार बनाना चाहता था। मकसद यह कि वह तालिबान को भारत के विरूद्ध जंग में उपयोग चाहता था। हम भारतीय विमान अपहरण और कंधार में जाकर आतंकवादियो को तालिबान के हवाले करने वाले मामले में देख ही चुके है। दूसरा मकसद अफ़गानिस्तान के अपने नियंत्रण मे होने से पाकिस्तान को डिफ़ेंस इन डेप्थ का फ़ायदा मिलता है।

वहीं अमेरिका अफ़गानिस्तान को आतंकवाद मुक्त और प्रगतीशील देश बनाना चाहता है, किसी भी सूरत में आतंकवाद की पनाहगाह बनने का खतरा वह दूसरी बार नही उठा सकता। दूसरी ओर मध्यपूर्व एशिया के पूर्व सोवियत देशो मे तेल का अथाह भंडार है। जिसे अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के जरिये वह बिना रूस के हस्तक्षेप के बाजार में ला सकता है। तीसरी ओर चीन को घेरने के लिये भी उसे अफ़गानिस्तान पर अपने नियंत्रण वाली सरकार चाहिये।



इन हितो में टकराव पाकिस्तान की दोहरी नीतियो ने मामले को इतने साल उलझाय रखा और अमेरिका को अफ़गानिस्तान में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन अब हालात में परिवर्तन आ चुका है ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान मे मिलने के बाद अमेरिका पाकिस्तान की दोहरी चाल समझ गया। अभी तक तालीबान अपने यहा छुपे न होने या कबीलाई लोगो से दुश्मनी मोल न ले सकने के बहाने दे पाकिस्तान डालर भी लेता रहा और तालिबान को मदद भी करता रहा। लेकिन ओसामा केस के बाद अमेरिका ने पूरे मामले को पलट कर देखा तो उसे साफ़ समझ मे आ गया कि माजरा क्या है लेकिन तब नाटो की अस्सी फ़ीसदी सप्लाई पाकिस्तान से ही होकर आती थी।  सो उसने दो काम किये पहला अड़चनो का बहाना दे डालर देना बंद किया दूसरा नाटो का सप्लाई रूट उसने मध्यपूर्व एशिया से बना लिया। अब नाटो की चालीस फ़ीसदी से भी कम सप्लाई पाकिस्तान से आती है और उसने सात महिने का भंडार जमा कर लिया है। अब अमेरिका पाकिस्तान को बिना साथ लिये भी अफ़गानिस्तान का मसला हल कर सकता है।


अब अमेरिका के सामने कोई मजबूरी नही है इसलिये उसने तफ़्सील से इन चौकियों पर हमले किये और सुनिश्चित भी किया कि पाकिस्तान को ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। अब फ़ैसला पाकिस्तान को करना है या तो वो अफ़गानिस्तान का फ़ैसला अमेरिका के हिसाब से होने दे या लड़ाई की राह चुने। जाहिर है लड़ तो वो सकता नही मोलभाव जरूर कर सकता है। पर मोलभाव मे काम मे लिये जा सकने वाले सारे पत्ते उसने पहले ही खो दिये हैं। अब भाव कम मिलेगा और मोल ज्यादा चुकाना होगा। अगरचे वह अमेरिका का समर्थन चाह्ता है तो उसे चीन के खिलाफ़ बन रहे अंतराष्ट्रीय व्यूह मे शामिल होना होगा। ताकि अरब सागर से चीन की सप्लाई बंद हो जाये और इरान अलग थलग पड़ जाये। इसके लिये उसे भारत से कश्मीर पर समझौता भी करना होगा, भारत विरोधी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को बदलना होगा और अपने यहां से आपरेट कर रहे सभी आतंकवादी समूहो का खात्मा करना होगा।

बीच का रास्ता यह निकल सकता है कि पाकिस्तान भारत से संबंध न सुधारे पर अमेरिका के खिलाफ़ तालिबान को हमले करने से रोके। ऐसे में अफ़गानिस्तान के युद्ध मे काफ़ी पैसे लगा चुके भारत जो अफ़गान सरकार की मदद कर वहा अपनी जड़े जमा चुका है। उसे पाकिस्तान के इलाको खासकर बलूचिस्तान में दखल देने से पाकिस्तान नही रोक सकता। ऐसी सूरत मे विकल्प एक ही बचता है कि पाकिस्तान भारत से दुश्मनी छोड़े या नुकसान उठाये।


आखिरी और अंतिम विकल्प यह है की पाकिस्तान टकराव की राह पर चले। यह टकराव कितना हो यह देखना बाकी है, पर किसी न किसी स्टेज मे पाकिस्तान को चीन और युद्ध तथा अमेरिका और शांती के बीच चुनाव करना ही होगा, उसके विकल्प कम से कमतर होते जा रहे हैं। पहले विकल्प से भारत को कॊई फ़ायदा नही क्योंकि वह तो पहले ही इस अवश्यंभावी युद्ध में अपने को उलझा चुका है। मनमोहन सिंग के नेतृत्व वाली सरकार ने भारत के हित को अमेरिका के हित से मिला दिया है और भारत की मीडिया में प्रतिदिन दिखाये जा रहे चीन विरोधी समाचार इस युद्ध की पूर्व तैयारियां है।युद्ध टल भी गया तो इस राह मे चल होना ही है। जितनी देर से होगा भारतीय पैसे उतने अधिक अमेरिकी हथियारो को खरीदने मे  जाया हो चुके होंगे। पाकिस्तान यदि अमेरिका और शांती को चुन लेता है ’जिसकी संभावना बेहद क्षीण है’,  तो निश्चित ही भारत अपना पूरा ध्यान चीन पर लगा सकेगा।

Tuesday, November 22, 2011

पाकिस्तान- मेमो, ब्लैकबेरी, और साजिश




आज पाकिस्तान की फ़िजां फ़ौजी तख्ता पलट और साजिशो की आशंका से सहमी हुयी है। इस पूरे खेल की शुरूवात हुयी एक अमेरिकी अखबार में छपे एक मजमून से। जिसमे कहा गया था कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई आतंकवादियो से मिली हुयी है और अमेरिकी सेनाओ पर हुये हमले मे शामिल है। इस मजमून में यह भी कहा गया था कि आई एस आई को आतंकवादी संगंठन घोषित कर इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिये। यह मजमून ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में पकड़े और मारे जाने के तुरंत बाद छपा था। इसे लिखने वाले थे मंसूर एजाज जो कि पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी हैं। ठीक इसी समय मंसूर एजाज ने अमेरिका के तत्कालीन सैन्य प्रमुख माईक मुलेन के पास एक मेमो पहुंचाया। जिसका सार यह था कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई तख्ता पलट कर सकते हैं।  और अभी सही वक्त है अमेरिका जरदारी की इन दोनो के पर कतरने मे मदद करे। ऐसा होने की सूरत मे राष्ट्रपति जरदारी सेना को अपने कब्जे मे ले लेंगे। पाकिस्तान मे छुपे सारे आतंकवादियों जिसमे मुल्ला उमर भी शामिल होगा को अमेरिका को सौंप दिया जायेगा। आगे यह भी वादा था कि अमेरिका के मनचाहे स्वरूप में पाकिस्तान के एटमी प्रोग्राम को ढाला जायेगा और यह सुनिश्चित किया जायेगा कि आतंकवादियो के हाथ वह न लगे। साथ ही मुंबई बम हमलो के आरोपी भारत को सौंप दिये जायेंगे।

इस मेमो में वह सब कुछ था जिसके आधार पर लेखक को पाकिस्तानी कानून के अनुसार देशद्रोही करार दिया जा सकता है और इस अपराध की सजा फ़ांसी के अलावा कुछ नही है। अमेरिका ने इस मेमो के मिलने की पुष्टि भी कर दी है। अब इन मंसूर एजाज साहब ने एक दूसरा मजमून लिखा जिसका सार यह था कि पहला मजमून और वह मेमो उन्होने ने अपनी मर्जी से नही लिखा बल्कि उनसे यह अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसैन हक्कानी के कहने पर लिखा गया था। एजाज साहब इतने पर ही नही रूके अब वे गला फ़ाड़ फ़ाड़ कर यह दावे कर रहे हैं कि उनके पास इस बात के पुख्ता सबूत है और इससे भी आगे यह की हुसैन हक्कानी ने यह मेमो राष्ट्रपति आसिफ़ जरदारी की ओर से लिखवाया था और उनके पास एक नोट भी है जो राष्ट्र्पति भवन ने इस बाबत भेजा था। अपने सारे सबूत उन्होने आश्चर्यजनक तरीके से उसी आईएसआई को सौंप भी दिये, जिसे वे खुद अपने लेखों मे आतंकवादी करार दे चुके थे।

मंसूर एजाज साहब संदेहास्पद चरित्र के व्यक्ति है उनके आईएसआई, रा जैसी जासूसी संस्थाओं से संबंध रहे हैं और वे इसके पहले भी इस तरह की घपले बाजी में शामिल रहे हैं एक समय मुशरर्फ़ साहब और भारत के बीच उन्होने कश्मीर समस्या सुलझाने के लिये मध्यस्तता  करने का दावा किया था और उस समय वे बिना पासपोर्ट वीसा के कश्मीर मे हेलिकाप्टर से आये थे और सेना ने उनकी कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से बातचीत भी करवायी थी।

दूसरी ओर हुसैन हक्कानी साहब इस मेमो और लेख से किसी भी तरह का संबंध होने से साफ़ इंकार कर रहे हैं। उनका यह भी दावा है कि जब वे माईक मुलेन से लेकर ओबामा तक खुद मिल सकते हैं। तो ऐसे किसी संदेहास्पद चरित्र वाले व्यक्ती के जरिये वे ऐसा काम क्यों करेंगे। उन्होने अपना वह ब्लैकबेरी फ़ोन भी पेश कर दिया है, जिसके द्वारा मंसूर एजाज ने मैसेज भेजने और रिसीव करने की बात कही थी। साथ ही पाकिस्तानी मीडिया के सेना समर्थक धड़े द्वारा उनके पाकिस्तान न लौटने की खबरो को झुठलाते हुये वे पाकिस्तान लौट भी आये हैं।

इस पूरे मामले ने पहला विकेट भी ले लिया है हुसैन हक्कानी साहब ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है, दूसरी ओर मंसूर एजाज साहब के दावे अब कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं तथ्यों की कसौटी पर उनकी बाते खरी नही उतर रही। लेकिन इस पूरे मामले मे फ़ायदा सेना का हुआ उन्हे लोकतंत्र समर्थक हुसैन हक्कानी का अमेरिका मे पाकिस्तान के राजदूत के पद पर रहना नही सुहाता था। और फ़ौज लंबे समय से उनको हटाने के लिये प्रयासरत थी। इमरान खान को भी इस मामले से राष्ट्रपति जरदारी को नीचा दिखाने का अवसर मिल गया। अब इस मामले मे हुसैन हक्कानी के पाकिस्तान लौट आने से सेना का मकसद पूरा हो चुका है। साथ ही उसने सिविलियन हुकूमत द्वारा विदेश नीति को निर्धारित करने के अधिकार को वापस पाने की कोशिशों को तगड़ा झटका भी दे दिया है। अब ऐसी बाते भी उभर रही हैं कि यह पूरा मामला पाकिस्तानी सेना की साजिश थी।


पाकिस्तानी सेना का अगला कदम क्या होगा,  यह तो अभी देखना है पर अमेरिका मे पाकिस्तान का अगला राजदूत अब फ़ौज की पसंद का होगा यह तय हो चुका है। पाकिस्तानी सेना अफ़गानिस्तान के भविष्य को अपने फ़ायदे के हिसाब से तय करना चाहती है। और आगे अमेरिका और पाकिस्तान मे टकराव बढ़ने वाला है, आशांकाओ के बादल पश्चिमी एशिया के आसमान में मंडरा रहे हैं। 

Friday, November 11, 2011

कश्मीर- सच, झूठ और अंतिम समाधान





कश्मीर एक ऐसा राज्य है जिसे कोई भी भारतीय या पाकिस्तानी आसानी से श्राप की संज्ञा दे सकता है। पर मामला यहां उल्टा है कश्मीर का नाम लेते ही दोनो देशों के नागरिकों की नसें तन जाती हैं। हिंदुस्तानी यह मानते हैं कि जब कश्मीर के राजा ने भारत से जुड़ना स्वीकार कर लिया तो कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया। पाकिस्तानी यह मानते हैं कि रियासतों के बटवारे में अलिखित समझ यह थी कि  हिंदू बहुल हैदराबाद भारत का भाग बन जायेगा और मुस्लिम बहुल कश्मीर पाकिस्तान का। पर बात अंतिम नही थी बटवारा होते होते अंग्रेजो ने कश्मीर और हैदराबाद को स्वतंत्र रियासत का दर्जा दे दिया,  मर्जी उनकी थी कि किससे जा मिले या स्वतंत्र रहें ।

 जारी रस्साकशी के बीच पाकिस्तान ने वो बेवकूफ़ी कर दी जो किसी भी समझदार मुल्क से अपेक्षित नही होती है। उसने कबाईलियों के भेष में अपने सैनिक वहां भेज हमला कर दिया। उस वक्त तक कश्मीर के महाराजा ने किसी से भी मिलने का फ़ैसला नही किया था और जाहिर है हिंदुस्तान को जब हैदराबाद अपने में शामिल करना होता तब पाकिस्तान उस अवसर को लीवरेज की तरह इस्तेमाल कर के कश्मीर को अपने में मिला सकता था। उस वक्त कश्मीर के महाराजा को हिंदुस्तान मदद नही करता।


इस हमले के बाद  कश्मीर के महाराजा ने भारत से मदद मांगी।  उधर इस्लाम के नाम पर जुटाये गये  हमलावर पाकिस्तानी सैनिकों ने  कश्मीर के इसाई चर्च और स्कूलों में जमकर लूटपाट और हत्या बलात्कार जैसी हरकतों की झड़ी लगा दी थी। इस हरकत ने माउंटबेटन को भी भड़का दिया सो उन्होने सीधे सीधे महाराजा कश्मीर को भारत में शामिल होने की शर्त लगा दी। मजबूरन महाराजा को शामिल होना पड़ा और युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में भारत जीत हासिल कर चुका था और उसने पाकिस्तानियों को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था। पर अब बेवकूफ़ी करने की बारी भारत की थी और नेहरू साहब ने संयुक्त राष्ट्र मे जाकर इस मुद्दे पर दखल की गुजारिश कर दी। उस पर तुर्रा यह कि उन्होने इसके बारे में सेना से न राय ली न ही उसे बताया। आम तौर पर युद्ध विराम के पहले सेना को सूचित किया जाता है ताकि वह सीमा पर अपने लिये सामरिक फ़ायदे की जगहों को चुन उन पर कब्जा कर ले। संयुक्त राष्ट्र ने जनमत संग्रह कराने का निर्णय लिया पर अब तक भारत अपनी गलती महसूस कर चुका था उसने तमाम शर्ते लगा दी और पाकिस्तान ने अगली बेवकूफ़ी की संयुक्त राष्ट्र का फ़ैसला यह था कि दोनो देशो की सेनाएं वहा से हट जायें और वहा निष्पक्ष मतदान हो पर पाकिस्तान अपनी सेनायें अनजाने डर से नही हटाईं और मामला टल गया। अब यह मामला पिछले चौसठ सालों से दोनो देशो के लिये नासूर बना हुआ है।

 तीन युद्धों और एक कारगिल के बाद भारत और पाकिस्तान ऐसे खेल में मशगूल हैं जिसका हल निकलता नजर नही आता। पाकिस्तान की जनता ने कश्मीर के लिये सैनिक तानाशाहों को भी सहा असंख्य कुर्बानियां भी दी और आतंकवाद का सांप भी पाला जो कि अब उनके ही गले पड़ गया है। भारत ने भी कम नुकसान नही उठाया है, पाकिस्तान के संभावित हमले से बचने के लिये और आतंकवादियों से निपटने के लिये और कश्मीर मे शांती बनाये रखने के लिये उसने असंख्य कुर्बानियां और अकूत दौलत खर्च की है। पाकिस्तान तो खैर तबाह ही हो चुका है दिवालिये पन की कगार में खड़ा होने के बावजूद उसकी सेना तकरीबन आधा बजट ले जाती है। दोनो देशो में ऐसे लोग हैं जो नारा लगाते हैं घांस खायेंगे पर कश्मीर के मामले पर समझौता नही का नारा लगाते हैं। जाहिर है घास तो गरीब जनता को ही खानी होती है,  नारा लगाने वाले तो वे लोग होते हैं जिनके पेट भरे हुये होते हैं।

समस्या यहीं तक सीमित नही है,  भारत और पाकिस्तान बदले का बदला चुकाते चुकाते एक दूसरे यहां ऐसी समस्याएं खड़ी करते जाते हैं जिनको खत्म करने मे दशकों लग जाते है और तब तक लाशों का अंबार लग चुका होता है। खालिस्तान हो या बलूचिस्तान कीमत आम आदमी को ही चुकानी होती है। इसके अलावा भी चीन और अमेरिका जैसे मुल्क और हथियारों के सौदागर इस लड़ाई में अपना उल्लू सीधा करते हैं।

कश्मीर में यथास्थिती बरकरार रहने में भारत का फ़ायदा है और गतिरोध टूटने में पाकिस्तान का। लेकिन इस गतिरोध के बने रहने का बिल लाखो डालर प्रति धंटे का है और यह बात भी तय है कि इस समस्या का समाधान हुये बिना भारत चीन से नही निपट सकता। आतंकवाद, नक्सलवाद आदि समस्याओं को खत्म नही किया जा सकता। और भारत के लिये जरूरी उर्जा की सप्लाई भी इस समस्या का समाधान होते ही सुरक्षित हो जायेगी। सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये जरूरी तेल और गैस इरान और पूर्व सोवियत संघ देशो से पाईपलाईन के जरिये भारत आने लगेगा।


इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है, जाहिर सी बात है कि समाधान के लिये दोनो ही मुल्कों को अपना कदम पीछे खींचना होगा और राह ऐसी तलाशनी होगी जिसमें दोनो ही देशों के नेता अपनी जनता और खास कर मीडिया को संतुष्ट भी कर सके।  क्यों न भारत कश्मीर से जम्मू और लद्दाख के हिस्से को अलग कर के अपने में शामिल कर ले। दूसरी ओर पाकिस्तान आजाद कश्मीर से North west frontier इलाके को अलग कर अपने में शामिल कर ले। अब बचा कश्मीर का वह इलाका जो कश्मीर की आजादी चाह रहा है इसमे से कुछ पाकिस्तान में शामिल होना चाहते है,  कुछ भारत में और अधिकांश लोग  अलग देश बनाना चाहते हैं। क्यों न इस इलाके को एक अलग रूप दिया जाये, जिसमे अपने हिस्सो पर कब्जा तो दोनो देशो का बरकरार रहे,  लेकिन इन हिस्सो के बीच अंतराष्ट्रीय सीमा केवल नाम की रहे। और इस हिस्से को बीस या तीस साल बाद जनमत संग्रह का अधिकार हो कि या तो वह दोनो में से किसी एक देश के साथ जुड़े या स्वतंत्रता ले ले। इस जनमत संग्रह मे दो तिहाई बहुत का मिलना आवश्यक शर्त हो। ऐसा न होने पर अगला जनमत संग्रह फ़िर निश्चित अंतराल में हो।

संभावित कदम के पहले भी दोनो देशो को  पानी, सुरक्षा और सड़क इन तीन मुद्दो पर काफ़ी काम करना होगा। तैयारी यही होगी कि क्श्मीर अलग हो जाये तब क्या या विरोधी के साथ चला जाये तब क्या। हालांकि कश्मीर के इस छोटे से हिस्से के अलग हो जाने से दोनो देशो को कोई खास रणनैतिक नुकसान नही होगा और दोनो ही देश अपने रक्षा बजट को बेहद कम कर सकेंग। इसके बाद दक्षिणी पश्चिमी एशिया में एक नई ताकत उभरेगी जो विश्व के सता संतुलन को प्रभावित कर सकेगी।


आपको अगर लगे कि यह हवा हवाई सोच है तो आपकी जानकारी के लिये अटल जी की सरकार और उसके बाद मनमोहन सिंग की सरकार इस विकल्प पर ही काम कर रही है। पिछले दरवाजे से इस समाधान के दांव पेंच पर चर्चा चल रही हैं। चीन को नियंत्रण में रखने को आतुर अमेरिका भी इसी समाधान पर जोर दे रहा है। लेकिन आशंका यही है कि पाकिस्तान की सेना जो भारत के हौव्वे को दिखाकर चौसठ सालो से ऐश कर रही है वह असानी से इस समाधान को अमली जामा पहनने नही देगी। चीन के भी सामरिक हित इस समझौते के खिलाफ़ है। ऐसा होते ही भारत चीन से मुकाबले को स्वतंत्र हो जायेगा और उसके बाद भारत से निपटना चीन के लिये टेढ़ी खीर होगा।



इस शतरंज की बिसात पर इमरान खान पाकिस्तानी फ़ौज का नया मोहरा है जो भारत और पाकिस्तान के संबंध निजी हितो के कारण मधुर होने देना नही चाहती। मनमोहन सिंग की सरकार की नाकामियां और भ्रष्टाचार भी इस पहल को दस साल दूर ढकेलने मे सक्षम हैं।  कांग्रेस को हराकर सता मे आयी नयी सरकार भी आसानी से नये विवाद को जन्म देना नही चाहेगी। आखिर सता अपने फ़ायदे के लिये पायी जाती है न कि देश के फ़ायदे के लिये।

Tuesday, November 1, 2011

इमरान खान - पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री

                                         
 इमरान खान हांलाकि पाकिस्तान में लंबे समय से राजनीति कर रहे हैं। पर उनका अपना दल तहरीक ए इंसाफ़ कागजों पर ही रहा है। उनकी खुद की लोकप्रियता तो पाकिस्तान में बहुत ज्यादा है पर खुद के दल का जमीनी संगंठन ना होने के कारण वे अब तक इस लोकप्रियता को भुनाने मे असफ़ल रहे हैं। लेकिन अब हालात में तेजी से बदलाव आया है। आज इमरान खान पाकिस्तान में एक बड़ी राजनैतिक ताकत मे तब्दील हो चुके हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि इस तब्दीली में खुद इमरान खान का कोई हाथ नही है। आज पाकिस्तान की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था चरमरा चुकी है। आतंकवाद ने पाकिस्तान के हालात बदतर कर दिये हैं, जनता सड़को पर आ चुकी है और व्यवस्था परिवर्तन चाहती है। लोग इस बदहाली के लिये जिम्मेदार शख्स की बली भी चाह रहे हैं। जिम्मेदार तो मुख्यतं पाकिस्तान की सेना ही है। उसने ही आतंकवाद और जेहाद को बढ़ावा दिया।  उसने ही अमेरिका को अफ़गानिस्तान में लाकर फ़साया और उसका अंजाम आज पाकिस्तान की जनता भुगत रही है।

बली का बकरा तो जाहिर है फ़ौज बनेगी नही, जब भी फ़ौज पर उंगली उठती है वह किसी न किसी घटना के सहारे मुल्क मे राष्ट्रवाद और देश भक्ति की लहर पैदा कर देती है। सो बली का बकरा पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ़ अली जरदारी ही बनेंगे। ऐसे में बात उनके विकल्प पर आती है और इस दौड़ में मियां नवाज शरीफ़ सबसे आगे हैं, उनका चुनाव जीतना लगभग तय ही था। पर मियां नवाज शरीफ़ से फ़ौज की दुश्मनी है। पिछली बार जनरल परवेज मुशर्रफ़ ने उनको बेदखल कर दिया था । ऐसे में नवाज शरीफ़ का एक सूत्रीय फ़ार्मूला फ़ौज की नकेल कसना और विदेश नीति मे उनके दखल को खत्म करना है।  मियां नवाज शरीफ़ का कहना है कि भारत से दुश्मनी पालने के कारण और हथियारों की होड़ के कारण ही पाकिस्तान की यह दुर्दशा हुयी है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि दाल मे कुछ काला जरूर है, वरना दुनिया खामखा आईएसआई पर आतंकवादियों का साथ देने का आरोप नही लगाती हैं।

अब फ़ौज भारत से दुश्मनी की नीती छोड़ नही सकती।  इस नीती के कारण ही तो उसे बेपनाह पैसा मिलता है और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर वह किसी भी किस्म की जांच से दूर रहती है।  ऐसे में फ़ौज को  प्रधानमंत्री पद का विकल्प तलाशना था। ऐसे में इमरान खान इस के लिये सबसे योग्य आदमी थे। एक तो उनकी कोई जमीनी पकड़ नही है और वे आई एस आई के द्वारा उपलब्ध करवाये गये मुल्ला ब्रिगेड नेताओं पर ही निर्भर रहेंग।  दूसरे उनकी छवि पाकिस्तान में अच्छे और इमानदार आदमी के रूप में है । तीसरे उनके आने से फ़ौज अगले पांच सालो के लिये अपनी मनमानी करने को स्वतंत्र हो जायेगी।

इमरान खान के पास भी फ़ौज का आसरा लेने के अलावा कोई विकल्प नही है।  फ़ौज ही उन्हे उनकी पार्टी तैयार कर के दे रही है और धन भी मुहैय्या करा रही है।  इस चुनाव को जीतने के लिये ऐसा लगता है कि इमरान खान ने बाबा रामदेव से काफ़ी कुछ सीखा है। बाबा की ही तर्ज पर वे भी कालेधन को मुख्य मुद्दा बना चुके हैं, साथ ही स्वदेशी से लेकर दो % ट्रांसैक्शन टैक्स वाला बाबा का फ़ार्मूला भी अपना चुके हैं।  इमरान खान ने कश्मीर मुद्दे को भी छेड़ दिया है।  साथ ही वे  पाकिस्तान को अमेरिकी मदद नहीं चाहिये और वह पाकिस्तान् को गुलाम नही दोस्त की तरह देखें का नारा भी बुलंद करते हैं। पर यह सब भी नयी बाते नही है तकरीबन हर पाकिस्तानी नेता अमेरिकी मदद को ठुकराने की बाते करता है। मजे की बात तो यह है कि आज पाकिस्तान को अमेरिकी मदद मिल ही नही रही। अमेरिका ने मदद का एलान जरूर कर रखा है और देने से इंकार भी नही करता, पर देता कुछ नही पहले आतंकवाद के खात्मे की शर्त लगा देता है।

ऐसे में मुल्ला ब्रिगेड के कंधो पर सवार होकर इमरान खान प्रधानमंत्री बनते नजर आ रहे हैं उनकी सभाओं मे भारी जन सैलाब भी उमड़ रहा है। और फ़ौज ने इसके पहले भी इसी तरीके से नवाज शरीफ़ को प्रधानमंत्री बनाया भी था। पर बाद मे जन समर्थन हासिल करने के बाद नवाज शरीफ़ ने फ़ौज से पिंड छुड़ाने की सोची और आखिरकार खुद ही सत्ता से बेदखल कर दिये गये।


इमरान खान प्रधानमंत्री बन गये तो कुछ समय के लिये आतंकवाद मे कमी आ जायेगी क्योंकि आतंकी समूह तो सेना के इशारो मे ही काम करते हैं पर आर्थिक सुधार लाना इमरान खान के बस में नही होगा। फ़ौज उन्हे चुनाव जितवा जरूर सकती  है पर दो तिहायी बहुमत नही दिला सकती और उसके बिना संविधान में संशोधन नही किये जा सकते। बिना सुधारो के पाकिस्तान है जहां है वहीं बना रहेगा और उसका भविष्य बहुत कुछ अफ़गानिस्तान मे बनते हालातों पर निर्भर करेगा।

  पाकिस्तान के पिछले ट्रेक रिकार्ड को देखा जाये तो सेना के समर्थन से बने सारे प्रधानमंत्री अंत मे यह समझ जाते हैं कि सेना की नीतियों पर चल आखिर में बलि का बकरा ही बनना होता है। जाहिर है सफ़ल प्रधान मंत्री और लोकप्रिय सरकार लोकतंत्र को मजबूर करता है और तानाशाही की आदी रही सेना इसे कभी होने नही देती।

Sunday, October 23, 2011

पाकिस्तान- अपने बनाये जाल में फ़ंसा देश

आज पाकिस्तान उस पहेली का हल खोज रहा है, जो उसकी खुद की बनाई हुयी है। हिलेरी क्लिंटन ने अपने दौरे में मीडिया से बात करते हुये कहा- "अगर पाकिस्तान और अमेरिका ने मिलकर आतंकवादियों के सुरक्षित ठिकानो को खत्म नही किया तो इसके अंजाम पाकिस्तान और अमेरिका दोनो के लिये ही बहुत खतरनाक होंगे"। जाहिर है यह एक कूट्नीतिक बयान था और बंद कमरो के पीछे पाकिस्तान को गंभीर अंजाम की चेतावनी दी गयी है। पाकिस्तान ने सोवियत संघ के अफ़गानिस्तान पर कब्जे और उसके बाद हुये जेहाद के वक्त से ही एक सोच अख्तियार कर ली थी कि अब अफ़गानिस्तान को अपना एक स्वायत्त राज्य बनाना है। इसके पीछे डिफ़ेंस इन डेप्थ की अवधारणा थी। भारत से हुये हर युद्ध में भारत पाकिस्तान के लगभग सभी ठिकानो पर हमला कर सकता था जबकि पाकिस्तान भारत के अंदर हमले की बहुत सीमित क्षमता था बंग्लादेश के अलग होने के बाद तो रही सही ताकत भी खत्म हो गयी और आगरा से आगे हमला करना उसके बूते से बाहर हो गया जाहिर है अब भारत अपने संसाधन देश की बाकी हिस्सों मे बना सकता था। अपनी इस कमजोरी को दूर करने के लिये पाकिस्तान ने अफ़गानिस्तान की ओर देखा।


अफ़गानिस्तान में सोवियत सेनाओं के चले जाने के बाद नजीबुल्ला की सरकार बनी। यह सरकार ठीक काम कर भी रही थी, पर यह सरकार पाकिस्तान की पिछलग्गू नही थी। जाहिर है जेहाद में पाकिस्तान ने नुकसान उठाया ही इसिलिये था कि उसे अफ़गानिस्तान पर नियंत्रण चाहिये था। पर अमेरिका ने सोवियत संघ के जाते ही पीठ फ़ेर ली,  उसे पाकिस्तान की रणनीति और समस्याओं से कुछ लेना देना भी नही था। अब पाकिस्तान ने तालिबान को नजीबुल्ला के खिलाफ़ युद्ध मे लगा दिया और काबुल पर तालीबान का कब्जा हो गया।  इस लड़ाई के लिये पैसा और लड़ाके अल कायदा ने इस्लाम के नाम पर ही दिये थे। अलकायदा  का अगला निशाना अमेरिका था और उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को तबाह कर दिया और  अमेरिका का दुश्मन नंबर वन बन गया। अब भी पाकिस्तान के पास मौका था वह ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौप सकता था।  पाकिस्तान पर उन दिनो परमाणू परीक्षण के कारण प्रतिबंध लगे हुये थे और पाकिस्तान की कोई आवश्यकता न होने के कारण अमेरिका भारत की ओर मुड़ रहा था।  पाकिस्तान ने सोचा कि ऐसे में अगर अमेरिका अफ़गानिस्तान मे जंग मे उलझ जाता है तो निश्चित रूप से पाकिस्तान को पैसों और हथियार की  बड़ी इमदाद मिलनी शुरू हो जायेगी और जनरल मुशरर्फ़ की सैनिक सरकार को मान्यता भी मिल जायेगी।


यह बात साफ़ नही है कि उस समय पाकिस्तान ने इस पूरे अभियान की समाप्ति की क्या रूप रेखा सोची थी। अमेरिका की सोच भी उस समय तात्कालिक ही थी उसकी नाक दुनिया के सामने कटी हुयी थी और ओसामा बिन लादेन को मारना उसकी इज्जत का सवाल था। और पाकिस्तान ने भी सोचा होगा कि पानी सर के उपर चढ़ने के समय शीर्ष आतंकवादियो की बली चढ़ा दी जायेगी। पर इस पूरे मामले में पेंच आ गये और अमेरिका ने पाकिस्तान मे मौजूद ओसामा बिन लादेन को खोज लिया। उसके भी पहले अमेरिका यह भी जान चुका था कि पाकिस्तान दोगली चाल खेल रहा है। इसके अलावा भी जिस प्रकार से अमेरिका अफ़गानिस्तान में अपने स्थायी ठिकाने बना रहा है। उससे स्पष्ट है कि पूरी तरह से अफ़गानिस्तान छोड़ने की इसकी योजना नही है। अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में भारत को भी एक मुख्य भूमिका सौपी है। आज अफ़गानिस्तान मे चल रहे अभियान को भारत बड़ी आर्थिक सहायता दे रहा है ऐसे मे जाहिर है पाकिस्तान की नींद उड़ चुकी है कहां वह भारत के खिलाफ़ अफ़गानिस्तान को अपना ठिकाना बनाना चाह रहा था और उल्टे भारत ही अफ़गानिस्तान मे आ धमका। ऐसे मे पाकिस्तान की स्थिती सांप छछूंदर सी हो गयी है। उस पर तुर्रा यह कि उसकी दोगली चालो की तर्ज पर अमेरिका ने भी तालिबान के एक धड़े तहरीक ए तालिबान को अफ़गानिस्तान मे सुरक्षित ठिकाना दे दिया है और वहां से तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान पर कहर ढा रहा है।


अब पाकिस्तान का क्या होगा यह पाकिस्तान पर निर्भर नही है फ़िलहाल इसका निर्णय सिराज्जुद्दीन हक्कानी पर निर्भर करता है अमेरिका ने पाकिस्तान से साफ़ कर दिया है कि या तो हक्कानी समूह मुल्ला उमर का साथ छोड़ अमेरिका के साथ हो जाये या पाकिस्तान उसे तबाह कर दे। पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क पर हमला कर ही नही सकता क्योंकि ये हमला उत्तरी वजीरिस्तान के कबीलो को पाकिस्तान के साथ युद्ध में खड़ा कर देगा और पाकिस्तान यह खतरा नही उठा सकता। हक्कानी यह चाहेंगे कि अमेरिका अफ़गानिस्तान से जल्द से जल्द चला जाये और अफ़गानिस्तान पर उनका नियंत्रण हो जाये , पैसे या धमकी का असर उन पर पड़ने की संभावना कम है क्योंकि वे तो जान की बाजी लगा इस्लाम के नाम पर रहे हैं और अमेरिका अब तक उनके सामने कहजोर ही साबित हुआ है। पाकिस्तान चाह रहा है कि अफ़गानिस्तान मे उसकी पिछलग्गू सरकार बने। अमेरिका क्या चाहता है यह साफ़ नही,  पर इस युद्ध मे खरबो डालर उसने खर्च किये हैं तो किसी न किसी आर्थिक उद्देश्य को पूरा करने के लिये ही। पूर्व सोवियत देशो से तेल निकाल कर वह अपने नुकसान की भरपायी कर सकता है। साथ ही चीन के खिलाफ़ जेहादियों को भी समर्थन दिया जा सकता है। फ़िर लीबिया के बाद इरान का तेल भंडार अमेरिका का अगला निशाना तो है ही।

पर सबसे अहम बात होगी अफ़गान क्या चाह रहे हैं। अफ़गान कुछ चाहे न चाहें अर अब वे पाकिस्तान से बेइंतहा नफ़रत जरूर करते हैं। पाकिस्तान की नीतियों ने उन्हे तबाह कर के रख दिया है।  जब जब उनको शांती का अवसर मिलता है तो पाकिस्तान उस अवसर को बिगाड़ने में कोई कसर नही छोड़ता। ऐसे में अफ़गानो ने पाकिस्तान के बलोच विद्रोही नेताओं को अपने यहां बसने और पाकिस्तान पर हमले करने की छूट दे दी है। अब मामला पाकिस्तान के हाथ में तो नही है और भविष्य मे होने वाली घटनाएं हम पर भी गहरा असर डालेंगी।  सबसे बड़ी बात अफ़गानिस्तान मे शांती तभी हो सकती है जब कश्मीर का विवाद सुलझ जाये। जब तक यह विवाद नहीं सुलझेगा तब तक पाकिस्तान भारत को दुश्मन मानता रहेगा और अफ़गानिस्तान में किसी भी तरह का अमन आना मुश्किल है। खैर अमन आ भी जाये तो नफ़रत के बीज जो बोये गये हैं उनसे लंबे समय तक इस क्षेत्र में हिंसा होती ही रहेगी।

अगले लेख में कश्मीर का सच झूठ और भविष्य